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‘ यह इंदौर का शिवसैन्यीकरण है ‘

-रजनीश जैन (वरिष्ठ पत्रकार की सोशल मीडिया वॉल से साभार )

…कौन सा शाट था वह। एक्शन तो पुल करने जैसा था। लेकिन लड़का बाल को ठीक से पढ़ नहीं पाया और नजदीक आते ही बाल को धीरे से प्लेड करना पड़ा। यह बाप की सिखाई क्रिकेट है जिसमें सामने से आ रही बाल को पढ़ने की कला शामिल नहीं है। उनके विरोधी जो विपक्ष से ज्यादा खुद के ही दल और विचारधारा के हैं, चाहे जब उन्हें यार्कर, गुगली और बाउंसर मार कर छकाते रहते हैं। नतीजा यह है कि मध्यप्रदेश पर राज करने का ख्वाब सिकुड़ कर सिर्फ इंदौर पर राज करने का रह गया है। पार्टी उनके सारे गुण अवगुणों से भलीप्रकार वाकिफ है सो उन्हें वैसी ही जिम्मेवारियां और टास्क दिए जाते हैं। जैसे कि बंगाल मोर्चा फतह करने भेजा गया है। यह मुझे मुगलकालीन परिस्थितियों की याद दिलाता है जब बादशाह अकबर ने अपने एक ऐसे ही उजड्ड सिपहसालार अलीकुली खान को बंगाल फतह करने बंगाल भेजा था। बाद में अली कुली खुद ही अकबर के उत्तराधिकारी जहांगीर के लिए समस्या बन गया जिसे एल्यूमिनेट कराने के लिए अपने बेहतरीन सिपहसालार आदमखान कोका को खोना पड़ा।

इंदौर में कैलाश के पुत्र आकाश की सभी वर्गों पर विजय का यह अभियान दरसल मध्यप्रदेश की राजनीति का वह कालखंड है जिसमें हमने राज्य के सबसे सुसंस्कृत शहर के मिनी मुंबई में शिवसैन्यीकृत होने की प्रक्रिया से साक्षात्कार किया है। बीस साल पहले इंदौर वह शहर था जहां से एक शालीन,लोकतांत्रिक और मिठास से भरी संस्कृति का सोता फूट कर देश भर को भिगा रहा था। बाबू लाभचंद छजलानी, राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, शरद जोशी और कितने ही नामचीन संगीतकारों, कलाकारों का शहर इंदौर जो यह सिखाता था कि किसी भाषण या पत्रकारिक लेखन में भी किसी व्यक्ति के प्रति ऐसे किसी एक शब्द का भी प्रयोग नहीं करना जिसे कड़ा शब्द कहा जा सके। यहां तक कि निंदा शब्द पर्याप्त था, सीमापार हो जाए तो भर्त्सना और आत्यंतिक स्थिति में कड़ी निंदा शब्द अपने पूरे प्रभाव के साथ उपयोगी थे। नईदुनिया ने कड़ी भर्त्सना कर दी इसका आशय समाज में यह होता था कि निंदित व्यक्ति ने कोई निकृष्टतम काम किया है।… और आज यह वही शहर है जहां आवेदन और निवेदन के दो चरणों की औपचारिकता के बाद दनादन का कल्चर अपने उरूज पर है।

यदि आप बारीकी से देखें तो अफसरों की पिटाई को सार्वजनिक अभिनंदन समारोह के रूप में मनाए जाने के संस्कार तक आने में इंदौर को सिर्फ बीस साल लगे हैं। दिग्विजयसिंह के कार्यकाल के उत्तरार्ध में राजनीति और अपराध का काकटेल पनपा था। उमाजी, बाबूलाल गौर से लेकर शिवराजसिंह के दो कार्यकालों में यह मुंबइया स्टाइल में फलाफूला। कांग्रेसी राजनीति की विष्णुबड़े संस्कृति को भाजपा में माडीफाइड करके शिवसेना पैटर्न पर विजयवर्गीय लेकर आए। मैं भी कड़े शब्दों से बचते हुए सधे शब्दों में कहना चाहता हूं कि विजयवर्गीय अब व्यक्ति नहीं ‘संस्था’ हैं। इसका आशय आप निकाल लें। वे अब सिस्टम हैं। इस सिस्टम को भाजपा या संघ ने पूर्णरूपेण स्वीकार किया हो ऐसा नहीं लगता। लेकिन पूरी तरह नष्ट करने की जरूरत भी नहीं समझी। यह आशंका ही सही पर आज के हालातों में ऐसा भ्रम फैल रहा है कि यह सिस्टम ही अब पार्टी है। संभव है कि पार्टी ने इस सिस्टम की चिन्हित खासियतों का ही आवश्यकतानुसार उपयोग करने बंगाल एक्सपेरिमेंट किया हो। यहां पार्टी यह न समझे कि वह सिस्टम का अपनी जरूरतों के अनुरूप अंशकालिक इस्तेमाल करके सिस्टम को रिजेक्ट कर सकेगी। सच यह है कि यह सिस्टम एक प्रवृत्ति है। इसे फैलने के लिए सिर्फ मुंबई, अहमदाबाद, इंदौर और कलकत्ता जैसा एक शहर चाहिए होता है। एक बार उपयोग करने के बाद आप इसे छोड़ नहीं सकेंगे, यह सहअस्तित्व के साथ खटिया में खटमल की तरह रहेगा। दिन आपका रहेगा तो रात सिस्टम की।

अतीत में पटवा सरकार ने इंदौर में अभियान चला कर इस खरपतवार को नष्ट किया था। कुशाभाऊ ठाकरे और उनका असर जब तक रहा तब तक यह सिस्टम जड़ें नहीं पकड़ सका। शालीन राजनीति की प्रतीक सुमित्रा ताई इस सिस्टम से लगातार लड़ती रहीं। लक्ष्मणसिंह गौड़ आवाज उठाते थे सो आज तक उनकी मृत्यु का घटनाक्रम किसी के गले नहीं उतरा। शिवराजसिंह को पूरी सूचनाएं थीं कि इंदौर में सिस्टम से गुजरे बिना पत्ता नहीं हिलता। हालात यह थे कि वहां कोई शख्स अपना घर या प्लाट बेचता था तो रजिस्ट्री के अलावा एक शुल्क और उसे देना होता था। इंदौर में संगठित अपराध का पैटर्न पूरी तरह बदल गया था। वहां मुंबई की तर्ज पर सुपारी किलिंग्स हो रही थीं। मकान, जमीन खाली कराने का उद्योग पनप चुका था, पुलिस इस सिस्टम का हिस्सा बन चुकी थी। अपने अंतिम कार्यकाल में शिवराज ने इस सिस्टम से टक्कर ली। एसईजेड, औद्योगिकीकरण और अन्य आर्थिक गतिविधियों के लिए उद्यमी इंदौर से कन्नी काट रहे थे। अनुकूल वातावरण बनाने के लिए अपराधियों के खिलाफ प्रभावी मुहिम तो चली ही, मुहिम तभी प्रभावी हुई जब उनके संरक्षक सिस्टम को राजनैतिक रूप से निष्प्रभावी किया गया था।

बीते साल भर से इस सिस्टम ने कम दबाव का क्षेत्र फिर से ढूंढ लिया है। उसने शिवराज सरकार के खिलाफ आंतरिक मुहिम चलाई, केंद्रीय सहायता से अपनी राजनैतिक उपयोगिता तलाश कर सिद्ध भी कर दी, कमलनाथ सरकार की अक्रियता से उपजे शून्य का दोहन किया है। नतीजा आपके सामने हैं। इंदौर में फिर गतिविधियां शबाब पर हैं। अफसर के पृष्ठभाग पर जो क्रिकेट खेली गई वह जनहित या जनसेवा के हितार्थ नहीं थी। एक प्रापर्टी है जिसे खाली कराने और खाली नहीं होने देने देकर करोड़ों इधर उधर करने का सीधा सा प्रकरण है।

बहरहाल इंदौर और इंदौरियों का अपना मौलिक फ्लेवर खो गया है। वे अभिशप्त हैं ऐसी क्रिकेट को दर्शक के रूप में देखने के लिए। शालीनता रिटायर होकर घर बैठी है। जिन्हें चुनकर लाए हो वे भी कम नहीं। पावर में लौटे राजा और पटवारी भी सिस्टम का सहयोग लेने में पीछे नहीं रहे हैं। लेखक, पत्रकार सब सिस्टम का हिस्सा हैं या सिस्टम से खौफजदा! …और यह सब लिखा इसलिए है कि शुचिता, संस्कार, राष्टनिर्माण करने वालों को सनद रहे और वक्त पर काम आए।

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