‘ पहली होली कवि पद्माकर से खेलते हैं सागर वाले ‘

(प्रस्तुति साभार – रजनीश जैन,सागर)

‘ पहली होली कवि पद्माकर से खेलते हैं सागर वाले ‘

एक शहर अपने कवि को किस तरहा जज़्ब कर सकता है, इसकी बानगी किसी को देखना हो तो उसे होली(धुरेड़ी) के रोज सागर के चकराघाट पहुंचना चाहिए। सागर में झील किनारे पद्माकर के पैदाइशी मकान के सामने उनकी प्रतिमा पर लोग जुटते हैं उन्हें हार फूल, इत्र, गुलाल लगाते हैं। उनके छंद गाते हैं फिर आपस में होली खेलते हैं। सन् 1753 में यहां जिस झील तट पर पद्माकर जन्मे, रहे और पल्लवित हुए उसका नाम ही भट्टोघाट रख दिया गया था।

बसंत और होली की खुमारी भरी मस्ती पर पद्माकर का कहा हर छंद नायाब है। कृष्ण और गोपियों के बीच होरी के जैसे बिंब वे रचते हैं, पढ़कर मन मुदित हो जाता है। पद्माकर का यह छंद होली का आइकानिक छंद है। जिसमें राधा हुरियारों की भीड़ से कृष्ण का हाथ खींचकर राधा भीतर ले जाती हैं, मन की करती हैं, उन पर अबीर की झोली पलट देतीं हैं, उनकी कमर से पीले वस्त्र छीन लेती हैं। कृष्ण को वे यूं ही नहीं छोड़ देतीं। जाते हुए उनके गाल गुलाल से मीड़ कर, शरारती निगाहों से हंस कर कहती हैं लला फिर से आना होली खेलने।

” फाग की भीर अभीरन तें गहि, गोविंद लै गई भीतर गोरी,
भाय करी मन की पद्माकर, ऊपर नाय अबीर की झोरी ।
छीन पीतंबर कम्मर तें, सु विदा दई मीड़ि कपोलन रोरी,
नैन नचाई,कह्यौ मुसकाई, लला फिर आइयो खेलन होरी।।”

कृष्ण से पांच साल बड़ी राधा की यह सारी कार्रवाई अचानक नहीं थी। यह कष्ण की हरकत का बदला था। इसके लिए योजना बना कर घात लगाई गई थी जिसका खुलासा पद्माकर के इस छंद से होता है,-

गैल में गाइ कै गारी दईं, फिर तारी दई औ दई पिचकारी,
त्यों पद्माकर मेलि उठी , इत पाइ अकेली करी अधिकारी।
सौंहै बबा की करे हौं कहौं, यहि फागि कौ लेहूंगी दांव बिहारी,
का कबहूं मझि आइहौ ना, तुम नंद किसोर!..वा खोरि हमारी।

कृष्ण ने रास्ते में राधा को अकेला पाकर घेर लिया था, गा गा कर गालियां दी थीं, तालियां मार कर मजाक उड़ाया था और पिचकारी मारकर रंग दिया था। इस घटना के बाद ही राधा ने बाप की कसम खा कर कृष्ण को चुनौती दे दी थी कि जिस दिन नंदकिशोर तुम हमारे गांव की गलियों में आ गए उस दिन दांव लगा कर इस फाग का बदला लिये बिना में मरूंगी भी नहीं।

होली पर कवि पद्माकर लेखकों, कवियों की डिमांड में रहते हैं। बरसाने और ब्रज की होली का जैसा वर्णन वे करते हैं वैसा अन्यत्र देखने में नहीं आता। ज्यादातर गोपिकाओं और राधा की तरफ से उनके होली छंद हैं।
यहाँ देखिए…गुलाल और नंदलाल जब एक साथ ही आँखों में पड़ जाऐं तो उसकी आनंद भरी पीड़ा को राधा यूं व्यक्त करती हैं-

एकै संग हाल नंदलाल और गुलाल दोऊ,
दृगन गए तें भरी आनंद मढ़ै नहीं।
धोए धोए हारी पद्माकर तिहारी सौंह,
अब तो उपाय एकौ चित्त में चढ़ै नहीं।
कैसी करुं कहां जाऊं कासे कहौं कौन सुनै,
कोऊ तो निकारो जासों दरद बढ़ै नहीं।
ऐरी मेरी बीर जैसे तैसे इन आँखन सों,
कढ़िगौ अबीर पै अहीर तौ कढ़ै नहीं।

ब्रज और बरसाने की होली पर पद्माकर के इस छंद की तानों से भरी मिठास देखिए-
आली ही गई हौं आज भूलि बरसाने कहूँ,
तापै तू परै है पद्माकर तनैनी क्यों।
ब्रज वनिता वै वनितान पै रचैहें फाग,
तिनमे जो उधमिनि राधा मृगनैनी यों,
छोरी डारी चूनरि चुचात रंग नैनी ज्यों।
मोहि झकझोरि डारी कंचुकी मरोरि डारी,
टोरि डारी कसनि बिथोरि डारी बैनी त्यों।।

ऐसे कवि से होली खेलना तो बनता है। कल यानि 21 मार्च, 2019 की सुबह ठीक दस बजे सागर के साहित्यजीवी फिर चकराघाट पर एकत्रित होंगे। इनमें एक नाम कल नया होगा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति दीपक तिवारी भी इस पद्माकरीय होली में शामिल हो रहे हैं।…आप सब भी आइए!
. (प्रस्तुति- रजनीश जैन,सागर)

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