सत्ता का संघर्ष सनातन ही नहीं अमानुषिक और असंवैधानिक भी है ,लेकिन इसे लेकर कोई न परेशान है और न चिंतित ।सब के सब अपना उल्लू सीधा करने के लिए प्रयासरत हैं ।कुर्सी के लिए चुने हुए विधायकों द्वारा की जा रही सौदेबाजी को देखकर आदिकाल की क्या,वर्तमान नगरवधुएं तक लज्जा अनुभव करती होंगी ।
सत्ता के इस संघर्ष और सौदेबाजी में शामिल हर एक व्यक्ति ने संविधान की शपथ ली है किन्तु एक भी इस शपथ का सम्मान करने के लिए राजी नहीं है। सभी इस शपथ की धज्जियां उड़ाने में लगे हैं और किसी भी हद तक नीचे गिरने के लिए राजी हैं ।सौदेबाजी करने वाला हर जन -प्रतिनिधि किसी न किसी छत्रप का पठ्ठा है ।सौदेबाजी के इस अनैतिक और शर्मनाक कारोबार को आम बोलचाल की भाषा में ‘हार्स ट्रेडिंग ‘ कहा जाता है ।लेकिन अब ये शब्द भी हल्का लगने लगा है ।
मध्यप्रदेश में साल भर पहले सत्ता गंवा चुकी भाजपा और जैसे-तैसे सत्ता में आई कांग्रेस के बीच ‘किस्सा कुर्सी का ‘ चल रहा है। दोनों दलों के अपने और शुभचिंतक जन प्रतिनिधि सत्ता सुख पाने के लिए खुद को बेचने के लिए बाजार में खड़े हैं ।सब अपनी मुंह मांगी कीमतें चाहते हैं लेकिन कोई इन बिकाऊ जन प्रतिनिधियों को हटकने वाला नहीं है ।अनेक राज्यों में पूर्व में आजमाया जा चुका ये प्रयोग अब मध्यप्रदेश में इस्तेमाल किया जा रहा है ।सब अपने-अपने तरीके से इस खेल में शामिल हैं। किसी को समूची सत्ता चाहिए तो किसी को राज्य सभा में जाने की फ़िक्र है ।संविधान की फ़िक्र किसी को नहीं है ।
सत्तारूढ़ कांग्रेस और भाजपा में बिकाऊ जन प्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त में सिद्धहस्त व्यापारी मौजूद हैं ।सब अपने-अपने तजुर्बे से अपने काम में लगे हैं ।दुर्भाग्य ये है की इस गंदे कारोबार को रोकने की सामर्थ्य न राज्यपाल के पास है और न राष्ट्रपति के पास।सब के सब ‘रबर स्टाम्प’जो ठहरे ,कसी सदन ने भी इस कारोबार को प्रतिबंधित करने के लिए क़ानून नहीं बनाया ।दल-बदल के लिए बनाये गए क़ानून की भी कोई परवाह नहीं करता ,क्योंकि इस क़ानून के पास शायद नाखून और दांत नहीं हैं ।नैतिकता और सांस्कारों की बात करने वाले राजनीति के पटेल ही इस कारोबार में संलिप्त हैं ,क्योंकि उन्हें भी सत्ता का सुख चाहिए ।
जन- प्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त से सत्ता हासिल करने का खेल हालांकि कभी-कभी कामयाब भी होता है लेकिन हर समय नहीं।मेरा अपना अनुभव है की कम से कम मध्यप्रदेश में मौजूदा हालात में ये खेल कामयाब नहीं हो पायेगा।क्योंकि दोनों तरफ एक से बढ़कर एक खिलाड़ी मौजूद हैं ।शह और मात के इस खेल में शायद ही सत्तारूढ़ दल को मात का सामना करना पड़े ! बिकने वालों को पता है की सत्ता के साथ खड़े रहकर ही उन्हें उनकी सही कीमत मिल सकती है ।विपक्ष फिलहाल ज्यादा कीमत लगाकर भी सत्ता सुख की गारंटी बिकाऊ जन प्रतिनिधियों को नहीं दे सकता ।
मध्यप्रदेश में कांग्रेस और भाजपा में बराबर की गुटबाजी है और ऐसी है की किसी से छिपी नहीं है,यानि सतह पर है ।इस गुटबाजी के चलते प्रदेश में जो भी सरकार चलती है उसे अपने साझेदारों को हर हाल में उनका हिस्सा देना पड़ता है। पूर्व में शिवराज सिंह ने 13 साल तक इस संतुलन को कायम रखा और साल भर से कमलनाथ इस संतुलन को बनाये रखे हैं ।फर्क सिर्फ इतना है की शिवराज के लिए ये खेल जितना आसान था,कमलनाथ के लिए उतना ही कठिन है ।पर दोनों के अपने-अपने अनुभव हैं ,अपने -अपने गुर हैं ।बावजूद इसके कमलनाथ की सरकार को अस्थिर करना बहुत आसान काम नहीं है हालांकि भाजपा अपने प्रयासों को विराम देने वाली नहीं है,क्योंकि पार्टी में एकजुटता
बनाये रखने के लिए ये अनिवार्य और अपरिहार्य है । हाथ पर हाथ रखकर बैठने से भाजपा में निराशा गहरा सकती है ।हमें याद रखना होगा कि आज के मध्यप्रदेश में न मुख्यमंत्री पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र हैं और न मुकाबले में कोई राजमाता । पूरा परिदृश्य बदला हुआ है
जन -प्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त के इस ताजा दौर से सत्तारूढ़ दल के कुछ नेता लाभान्वित हो सकते हैं ,कुछ बिकाऊ जन प्रतिनिधियों को भी फायदा हो सकता है लेकिन भाजपा को इससे कोई लाभ होने वाला नहीं है ।संविधान और जनता के साथ तो छल हर सूरत में झेलना है। अब सही समय है की जनता इन बिकाऊ नेताओं को चिन्हित करे और जब भी समय मिले सबक सिखाये । जब तक राजनीति में घोडों की तरह बिकने वाले जन प्रतिनिधि मौजूद रहेंगे राजनीति पतित-पावन नहीं हो पाएगी ।गंदी राजनीति स्वस्थ्य समाज की संरचना कतई नहीं कर सकती ।गंदगी बोकर गंदगी ही पैदा की जा सकती है ।
