झन्नाटेदार है यह ‘थप्पड़’
‘थप्पड़’ जोरदार है, तकलीफ देगा, आपके दिलोदिमाग़ की चूलें हिला देगा। सदियों के संस्कार, रीति-रिवाज, समाज, खानदान की इज्जत, परिवार की खुशी के लिए अपने अरमानों की कुर्बानी जैसे मुहावरों के नए अर्थ आपकी भावनाओं, संवेदनाओं पर भरभराकर गिर पड़ेंगे और आप दर्द होते हुए भी ठीक से कराह नहीं पाएंगे। विवाह जैसी संस्था की निर्मम चीरफाड़ आपके मन को आहत कर सकती है। अच्छा यही है कि ‘थप्पड़’ खाने न जाएं। बहाना ढूंढ लें। फिल्मों को बॉयकॉट करने का चलन बढ़ रहा है सो बहती गंगा में हाथ धो लें। इस पूर्व सूचना के बाद भी ‘थप्पड़’ के लिए गाल आगे बढ़ाने की हिम्मत दिखाएं तो स्वागत है।
अनुभव सिन्हा और अधिक मैच्योर हो गए हैं। अपने ‘मुल्क’ और ‘आर्टिकल 15’ से काफी आगे निकल गए हैं। उन्होंने ‘थप्पड़’ में घरेलू हिंसा के संत्रास से जुड़े अनेक आयामों वाले बेहद नाजुक मुद्दों को उठाया है लेकिन पूरी सतर्कता और नफासत के साथ! ‘थप्पड़’ को प्रतीक बनाकर वे मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रेम, संस्कार, अहंकार, त्याग, मानसिक आर्थिक सामाजिक भावनात्मक बेबसी के अदृश्य ताने-बाने को उलझाते नहीं अपितु स्पष्टता के साथ सुलझाते चलते हैं। कहानी उम्दा है। पटकथा लेखन और पात्रों का चरित्र-चित्रण कुशलता के साथ किया गया है। तापसी पन्नू की एक फिल्म याद आती है ‘पिंक’, जिसका सूत्रवाक्य था ‘ना का मतलब ना होता है’। ऐसे ही ‘थप्पड़’ की थीम हो सकती है- ‘जहां प्रेम और कदर न हो वहां क्या रहना?’
पुरुष प्रधान समाज में ‘थप्पड़’ महिलाओं पर केंद्रित फिल्म है। अनेक महिला पात्रों की कहानियां एक साथ चलती हैं जो जाने-अनजाने एक-दूसरे को प्रभावित कर रही हैं। तापसी पन्नू के मुकदमे की तैयारी करते हुए उसकी वकील अपने भीतर चल रहे अंतर्द्वंद्व का सही दिशा में मुकाबला करना सीखती है। गोया वह खुद से अपना मुकदमा लड़ती है जिसमें एक पक्ष उसका है, दूसरे पक्ष का संचालन तापसी कर रही है और अंतश्चेतना न्यायाधीश है। केंद्रीय पात्र की घरेलू नौकरानी, रिश्तेदार, दोस्त सभी की जिंदगी का अप्रत्यक्ष कनेक्शन नजर तो आता है लेकिन परिस्थितियां अलग हैं इसलिए ट्रीटमेंट भी अलग है।
‘थप्पड़’ को केवल ‘घरेलू हिंसा’ पर बनी फिल्म कहना नाइंसाफी होगी। यह फिल्म झोपड़पट्टी से लेकर हाई प्रोफाइल फैमिली तक में ‘घरेलू हिंसा क्यों’ की पड़ताल करते हुए उसकी जड़ तक पहुंचने का प्रयास करती है। फिल्मकार ने पात्रों की समझ को विकसित होते हुए दिखाकर उम्मीद को बनाए रखा है। कोर्टरूम का एक भी दृश्य न होने के बावजूद फिल्म में मुकदमे का तनाव साफ झलकता है। अनुभव सिन्हा की यही खूबी है। वे ‘आर्टिकल 15’ में भी बिना बंदूक से गोली चलाए दर्शकों को हिंसा का रोमांच महसूस करा देते हैं।
महिला पात्रों को लेकर अनेक फिल्में बनी हैं। ‘लज्जा’, ‘आधे-अधूरे’, ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’, ‘पार्च्ड’, ‘सांड की आँख’, ‘पिंक’, आदि में भी महिलाओं की व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक परिस्थितियों का चित्रण और उससे जुड़े सवालों की पड़ताल करने की कोशिश की गई है। ‘थप्पड़’ को इसी कड़ी का सार्थक प्रयास मान सकते हैं।
कलाकारों की ऐक्टिंग बढ़िया है। कहानी, पटकथा, संवाद और एडिटिंग की सफलता यही है कि फिल्म का संदेश स्पष्ट रूप से दर्शकों तक पहुंचता है।
प्रसंगवश- तापसी पन्नू द्वारा ‘सांड की आँख’ के लिए फिल्मफेयर अवार्ड जीतने पर एक प्रशंसक ने उन्हें ‘बॉलीवुड की आयुष्मान खुराना’ बताया तो पन्नू ने जवाब दिया कि ‘इसके बारे में क्या कहेंगे कि अगर मुझे बॉलीवुड की पहली तापसी पन्नू बुलाएं।’ यदि खीझ उठे कि इस बात का ‘थप्पड़’ से क्या लेना-देना? तो, जवाब ढूंढने का काम भी आप ही करें।
चेतावनी- यदि आप पुरुष प्रधान समाज के पक्षधर हैं, महिलाओं को लेकर पूर्वाग्रही हैं तो फिल्म देखते समय अपने अहम् की सुरक्षा का ध्यान रखें। ‘अंत भला सो सब भला’ के आदी दर्शकों को समझ में नहीं आएगा कि जब पुरुष अपनी भूल पर पश्चात कर रहा है तो पुराने दिनों के लौटने में बाधा क्या है? उत्तर के लिए उन्हें फिल्म अधिक सतर्कता के साथ दोबारा देखनी होगी।
कोई ताज्जुब नहीं कि यह फिल्म आम (स्त्री और पुरुष) दर्शकों के गले उतरने में थोड़ी-बहुत मुश्किलों का सामना करे।
-रमेश रंजन त्रिपाठी