ब्रजेश राजपूत,
एबीपी न्यूज, भोपाल
वैसे सुबह तो रोज होती थी मगर इन दिनों की सुबह कुछ अलग है। नींद जल्दी खुलती है और खिडकी पर आते ही ढेर सारी चिडियों की चहचहाहट स्वागत करती है। खिडकी के एक तरफ गौरेया का तो दूसरी तरफ काली सी दर्जिन चिडिया का घोंसला बन रहा है। आपके उठने के पहले से ही उनका तिनके जमाने का काम शुरू हो जाता है जो शाम तक चलता रहता है। शाम होते ही चिडियों के वो दोनों परिवार गायब हो जाते हैं जो दिन भर अपना घरोंदा बनाने के लियेे लगे रहते हैं। मन में आता है कि इस नये आशियाने में आने से पहले वो जाने कहां रह रहे होंगे। ये घर तो उनकी परिवार की बढती जरूरत को पूरा करने के लिये बनाया जा रहा है। यदि परिवार नहीं बढ रहा होता तो शायद ये चिडिया भी हमारे घर के पास अपना घर नहीं बना रहीं होती और हम भी उनकी मन में उर्जा भरने वाली चहचहाहट से अंजान बने रहते। जब अपने घर के पास बन रहे इन घरोंदा की चर्चा हमने घर पर की तो ताने सुनने मिले अरे हमें तो पहले से ही मालुम है तुमको अब पता चला वैसे भी तुम्हारे पास इन सबको देखने का वक्त ही कहां है।
इसलिये अब जब वक्त मिला है तो घर के आसपास गौर से देखना शुरू कर दिया है। तो बहुत सारी नयी बातें पता चलीं सोचा आपको ही बता दूं घर पर बताउंगा तो वही पुराना ताना सुनने मिलेगा अरे हमें तो मालुम था। एक रोज सुबह अखबार आने के पहले मधुर सी आवाज आने लगी वो आवाज भी ऐसी जिसे पाकिस्तानी गायिका रेशमा ने हीरो फिल्म के गाने में कहा था कि कोयल की कूक ने हूक उठायी। गौर किया तो देखा कि घर के बाहर के बाहर लगे चंदन और आंवले के पेड पर रोज सुबह दो कोयल आती हैं दोनों अलग अलग पेड पर बैठ कर कूकतीं हैं तो सचमुच में हूक सी उठती है। ये कोयलंे तो पहले भी आती होंगीं मगर तब अखबार आते ही दुनिया जहान की खबरों में व्यस्त हो जाते थे कोयल की कूक सुनने की फुरसत ही नहीं थी। मगर अब अच्छी बात ये है कि ये कोयल की कूक दिन भर सुनाई देती है। अभी जब लिख रहा हूं तब भी कोयल बाहर कूक रही है। ये आवाजें शायद अब इसलिये भी सुनाई दे पा रहीं हैं कि बाहर का कोलाहल कम हुआ है। गाडियों की आवाजें और उनके हार्न की कर्कश आवाजें कोयल की कूक का गला घोंट देतीं होंगीं। मगर कोयल की कूक का अहसास अदभुत है। ये हमारी प्रकृति है उसकी याद हमें तब ही आती है जब हमारे हमें याद करना भूल जाते हैं। वैसे मैं ये भी देख रहा हूं कि मेरे घर की छत पर रोज सुबह आकर दाना चुगने वाले कबूतरों की संख्या भी इन दिनों बहुत बढ गयी है। वैसे ये कबूतर मेरे घर के सामने के एक खाली पडे थ्री बीएचके एफ टाइप फलेट में लंबे समय से रह रहे हैं। वैसे तो ये चार कमरों का वीरान सा घर है मगर वहां कम से कम बारह से बीस कबूतर अपना ठिकाना बनाये हुये हैं। मैंने इतने सालों मंे उनको एक बार ही बेघर होते देखा था जब पडोस में शादी हुयी थी तो उस घर की साफ सफाई हुयी थी तब कुछ दिन उन कबूतरों ने यहंा वहंा के तारों पर बैठ कर दिन काटे थे मगर शादी निपटते ही उन कबूतरों को फिर उनके फलेट पर कब्जा मिल गया था। वैसे उनकी दिनचर्या भी यहीं है कि सुबह उठना दूसरे फलेट वालों की तरह उनको नौकरी पर तो जाना नहीं है मगर जहां जहां उनके मित्र परिवार उनको खाना डालते हैं वहां पर जाकर दाने चुगना और फिर फलेट के सामने की खिडकी या फिर वहां से गुजरते बिजली के तारों पर बैठकर चुहलबाजी करना। दिन भर वो अपने फलेट की खिडकी से हमको अपने आफिस से आते और जाते हुये देखते होंगे मगर इन दिनों उनकी आंखों में भी हमें देख आश्चर्य तो उभरता होगा कि क्या भाई आजकल दिन भर घर पर ही हो। सब राजी खुशी तो है। नौकरी औकरी तो नहीं ना छूटी। मगर वर्क एट होम करते हुये हम क्यों उनको करोना के नाम पर डरायें। उनकी दुनिया में करोना नहीं आया तो उसकी वजह यही है कि वो जरूरत का ही खाते पीते और छोटी सी जगह में रहकर गुजारा करते हैं। जबान और जमीन का लालच उनको नहीं है।
यदि करोना की वजह से हमारे शहरों में वीरानी पसरी है तो उसको दूर करने उन जगहों के पुराने रहवासी आने लगे हैं। जयपुर के गलता गेट इलाके में शुक्रवार की रात हिरणों का झंुड सडकों पर टहलता देखा गया। इटली के तटीय शहरों में डालफिन आकर अठखेलियां करने लगी हैं। इटली के ही शहर वेनिस मंे गोंडला यानिकी वहाँ चलने वाली नावें बंद हुयी तो वहां सुंदर हंसों के झुंड तैरते दिखने लगे। सिंगापुर के पार्कों में दौडभाग करते उदबिलाव के परिवारों के फोटो दिखे हैं। मगर सबसे सुकून देने वाला फोटो तो शिकागो के शेड एक्वेरियम का है जब बंद एक्वेरियम में टहलते दिखे एडवर्ड और एनी नामके दो पेंग्विन। जो शायद अपने साथियों से पूछते घूम रहे थे कि सुकून में तो हो।
सच तो ये है कि करोना ने तबाही भले ही मचायी हो दुनिया में मगर ये वक्त है जब हम अपने आसपास देखें और उन प्राणियों को भी जगह दें जो प्रकृति ने उनको बख्शी है।
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