जीत को सकै ? अजय रघुराई!!
ललितपुर। मजदूर दिवस पर आयोजित एक परिचर्चा को संबोधित करते हुए नेहरू महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य प्रो.भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि अयोध्या से लंका तक फैला अपार जनबल जब लामबंद होकर निर्वासित राजकुमार वनवासी राम के साथ खड़ा हो गया तो उनकी जीत को कौन चुनौती दे सकता था। इसी अपराजेय बल के सहारे वे समता और न्याय आधारित रामराज्य की स्थापना कर सके।
उन्होंने कहा अनादि काल से चल रही हक और सच की लड़ाई को आधुनिक संदर्भ में मजदूरों की शानदार जीत का स्वर्णिम अध्याय है। 1886 से मनाया जाने वाला विश्व मजदूर दिवस जिसे पूँजीपतियों की चिलम भरने और उनकी ठकुरसुहाती करने वाले यूरोपीय इतिहासकारों ने 16 घंटे के स्थान पर मात्र 8 घंटे काम करने के न्यायोचित प्रतिरोध के आगे घुटने टेक देने जैसी मजदूरों की पहली बड़ी जीत को छोटी सी घटना समझकर भुला दिया था, किन्तु तब से लेकर आज तक विश्व भर के शारीरिक और बौद्धिक श्रमजीवी हाथ से हाथ और दिल से दिल मिलाकर 1 मई की हिलाकर रख देने वाली इस घटना को अपनी जीत की वर्षगांठ के रूप में मनाते चले आ रहे हैं। तथ्यतरू पूँजी निर्जीव है, परन्तु श्रम जीवंत होने के कारण सर्वाेपरि है तथा श्रम ही पूंजी का उदगम है। कैसी बिडंवना है कि कुदाल लेकर दिन रात पसीना बहाकर जो मजदूर एक ओर अन्य शाक-सब्जियों और फलों का उत्पादन करतें हैं और दूसरी ओर कलम के धारक मजदूर और उनके बेटे अन्य उत्पादों की तरह ऑक्सीजन और रेम्डेसिविर जैसे इन्जेक्शन कारखानों में बनाते हैं और अस्पतालों तक पहुँचाने में उसका परिवहन करतें हैं और उन्हीं वस्तुओं के अभाव में बनाने वाले श्रमजीवी बेमौत दम तोड़ देते हैं जबकि परमात्मा ने उन्हे गरिमामय जीवन जीने के लिए भरपूर सांसें दी है। हमारे संविधान के अनुच्छेद -21 की धारा सीधे- सीधे प्रत्येक स्त्री पुरुष को मनुष्योचित जीवन जीने की गारंटी देती है। यदि आमजन को समय पर इलाज न मिले तो उसके जीने के अधिकार पर कुठाराघात मानती है। अर्थात प्रत्येक के उसके हिस्से की धूप और छाया प्रदान करने की जिम्मेदारी जनता द्वारा चुनी हुई सरकार की और साथ ही साथ प्रबुद्ध और संवेदनशील जनमत की है। वस्तुतरूश्रमजीवी और बुद्धिजीवी कैंची के दो ऐसे संयुक्त फलों की तरह हैं जिनके जरिए लापरवाही उदासीनता और कर्तव्यहीनता की पर्त दर पर्त मोटी पर्तों को काटकर कूड़ेदान में फेका जा सकता है।