जे न मित्र दुख होहिं दुखारी,
तिनहिं विलोकत पातक भारी।
निज दुख गिरि सम रज कर जाना,
मित्रक दुख रज मेरु समाना।
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा,
गुन प्रगटहिं अवगुनहिं दुरावा।
विपति काल कर सतगुन नेहा,
श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।
गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा विरचित श्रीरामचरितमानस की ये चौपाइयाँ मित्र और मित्रता की सम्पूर्ण व्याख्या करतीं हैं।
इससे विस्तृत, विशद और स्पष्ट व्याख्या कहीं और नहीं मिलती। त्रेता युग में भगवान श्रीराम ने दो लोगों से अद्भुत मित्रता की थी, वे थे सुग्रीव और विभीषण। सोचिए जगदाधार मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम स्वयं जिससे मित्रता का बन्धन बाँध लें उसके लिए जगत में पाने को क्या रह जाता है?
वानरराज सुग्रीव से चर्चा करते हुए श्रीराम कहते हैं कि मित्र के दुखी होने पर जो स्वयं दुखी हो जावे, अपना बड़े से बड़ा दुख/कष्ट तृण समान और मित्र का तृण समान कष्ट भी जिसे पर्वत के समान विशाल लगता हो, गलत रास्ते पर जा रहे मित्र को समझाकर रोके और उसे सही राह दिखावे, समाज में कभी भी मित्र के अवगुण प्रकट न होने दे और सदा उसके गुणों को दुनिया के सामने लावे, विपत्ति के समय उससे सौ गुना स्नेह प्रकट करे और उसकी भरसक सहायता करके उसको विपत्ति से उबारे यही सब मित्र के गुण हैं।
कहते हैं सच्चा मित्र सगे भाई से भी बढ़कर होता है, और रामायण काल में प्रभु श्रीराम ने अपने दोनों ही मित्रों के साथ सच्ची,निष्कपट, निःस्वार्थ मित्रता निभाकर इसको चरितार्थ कर दिया।
द्वापर में लीलाधर श्रीकृष्ण और दरिद्र ब्राह्मण सुदामा की मित्रता की कथा से कौन परिचित नहीं है मुट्ठी भर तंदुल का ऋण चुकाने के लिए तीनों लोक के स्वामी जिस प्रकार मित्र के आने की सूचना पाकर नंगे पैरों राजमहल के प्रवेश द्वार तक दौड़े चले आते हैं, मित्र के धूल धूसरित, पथ श्रमित पैर देखकर जिस प्रकार भाव विह्वल होकर प्रेमाश्रुओं से ही मित्र के पग पखारने का ऐसा प्रसंग अन्यत्र कहीं देखने-सुनने को नहीं मिलता।
जीवन जीने की सही राह दिखाती प्राचीन पुस्तक पंचतंत्र में भी मित्रता को लेकर एक श्लोक है जो इस प्रकार है- ददाति प्रतिगृहाति गुह्ममाख्याति पृच्छति।
भुक्तये भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम्
अर्थात श्लोक के अनुसार अगर आप और आपके मित्र के बीच यह छह बातें हैं तो निश्चित ही आप एक दूसरे के सच्चे मित्र हैं-
पहली और दूसरी बात है लेना और देना अर्थात जो मनुष्य आपके साथ अपनी निजी वस्तुएं और विचार बिना किसी झिझक के बांट लेता हो, उसे अपना सच्चा दोस्त समझना चाहिए।
तीसरी और चौथी बात है हम सभी से अपने मन की बात नहीं कह पाते, इसके लिए सामने वाले पर विश्वास होना बहुत जरुरी होता है। अगर आप किसी पर इतना विश्वास करते हैं कि उससे अपने मन की बातें कह सकें और उसकी जान सकें तो उसी व्यक्ति को अपना सच्चा मित्र समझें।
पांचवीं और छठी बात है साथ खाना और खिलाना किसी के साथ खाना और उसे खिलाना सच्ची दोस्ती की पांचवी और छठी निशानी मानी जाती है। जो लोग आपके घर-परिवार को अपना समझते हैं और आपके परिवार के साथ भी अपनापन महसूस करते हैं, वही आपके मित्र हैं।
राजीव बिरथरे की कलम से