बुंदेलखंड के गरीब , जहां से चले थे वहीं लौटे
मयंक दुबे
मौत कोरोना से हो या भूख से दोनों ही हालात बुंदेलखंड के मजदूरों को मंजूर हैं। दो वक्त की रोटी कमाने बुंदेलखण्ड छोड़कर दिल्ली जैसे महानगर में यह सोचकर गए थे कि कम से कम भुखमरी से मौत.नहीं होगी। पर, क्या मालूम था कि एक तरफ से नहीं मौत दोनों तरफ से घेर लेगी। धनाड्यों ने हवाई रास्ते से कोराना जैसी महामारी लाकर महानगरों में बांट दी। विदेश आने और जाने के अमीरों के शौक से जो आपदा आई उसने बुंदेलखंड के इन मजदूरों को घर का.छोड़ा न घाट का। यह भोले भाले मजदूर कुछ समझ पाते इसके पहले ही पूरा देश लाकडाउन कर दिया गया। जहां काम करते थे वे फैक्ट्रियां बंद हो गई, लोग घरों में कैद हो गए. और लाखों की तादाद में.बुंदेलखंड के मजदूर अपने छोटे छोटे बच्चों के.साथ सड़क पर खड़े रह गए, खाने को रोटी न सिर छुपाने. को छत, उस पर पुलिस के डंडे अलग से। मजबूरी में.पैदल ही चल.दिए अपने घर को।
सैकड़ों मील का लगातार सफर कर रहे बुंदेलखंड के इन मजदूरों का कोराना से क्या होगा यह.तो भगवान ही जाने पर भूख इन्हें जिंदा इन्हें घर तक पहुंचने देगी यह कहना मुश्किल है। सरकार भले ही कहती रही हो कि.बुंदेलखंड से पलायन बंद हो गया है, पर लाक डाउन के बाद दिल्ली से लेकर झांसी, ललितपुर, टीकमगढ़, निवाड़ी, छतरपुर, महोबा तक लगी पैदल मजदूरों की कतार चीख चीख कर कहती है कि सरकारी दावे झूठे हैं।